सृष्टि कर्ता भगवान ब्रह्मा और सृष्टि पालन कर्ता भगवान विष्णु के बीच युद्ध
भगवान विष्णु बोले नहीं पुत्र! तुम इस ब्रह्माण्ड के ईश्वर और परमपिता नहीं हो तुम्हाराव अस्तित्व तो मुझ से है। ध्यान से देखो जिस कमल पुष्प से तुम प्रकट हुये हो वह मेरे नाभि से जुड़ा हुआ है जो यह प्रमाणित करता है कि तुम्हारा जन्म मेरी नाभि मे से उत्पन्न कमल से हुआ है तुम्हारा कारण तो मै ही हुँ तुम मेरे पुत्र ही समान हो।
भगवान ब्रह्मा अट्टहास करते हुए अहंकारवश शब्द मे बोलें नहीं मेरा कोई पिता नहीं है मैने ये संपुर्ण ब्राह्माण्ड देखा है ये ये मुझ से ही प्रकट हुआ है। मैं ही इसका कारण हुँ और मैं इस समस्त ब्रह्माण्ड का ईश्वर हुँ।
इस प्रकार भगवान ब्रह्मा विष्णु भगवान के समझाने पर नहीं माने। एक बच्चे के समान ही जिद्द करने लगे। फिर भगवान विष्णु जी ने पिता के भांति समझाने का तरीका निकाला।
भगवान ब्रह्मा जीने जब प्रमाणित करने को कहा तो भगवान विष्णु ने भगवान ब्रह्मा के शरीर मे से नाभि कमल दंड के रास्ते से कई वर्षों की यात्रा करते हुए भगवान ब्रह्मा के शरीर से बाहर निकल कर प्रकट हो गए। यही क्रिया भगवान विष्णु ने भी करने को कहा। तब भगवान ब्रह्मा ने जिस कमल पर बैठे थे वही से यात्रा प्रारंभ करते हुए कमल के कमलदंड तक पहुचने मे कई लाखो वर्ष लग गए लेकिन वह कमल दंड मे ही यात्रा करते रहे लेकिन जब उनका अन्त नही पाया गया तो भगवान विष्णु को शर्महार होकर पिता घोषित करते हुए उनसे मदद की गुहार लगायी। तब भगवान विष्णु ने ब्रह्मा जी पर दया दिखाते हुए उन्हे उस कमल दंड से निकाल कर कमलपद पर आसीन किया तथा भगवान विष्णु से क्षमा मांगने लगे।
भगवान विष्णु जानते थे कि ब्रह्मा जी सिर्फ शर्मसार ही हुए है उनका अहंकार अभी नष्ट नहीं हुआ है। कई समय तक वाद विवाद ऐसे ही चलता रहा। तभी वाद विवाद इतना बढ़ गया था कि उनमे युद्ध प्रारंभ हो गया युद्ध मे दोनो ओर से अस्त्र-शस्त्र तक चलना प्रारंभ हो गया तभी एक और से वहां स्वर सुनायी दिया और एकाएक अग्नि स्तम्भ प्रकट हो गया वह अस्त्र शस्त्र उस अग्नि स्तम्भ ने अपने मे समा लिये और दोनो को युद्ध करने के लिए मना किया।
उस अग्नि स्तम्भ मे से आवाज़ आई तुम दोनों की उत्पत्ति का सर्व श्रेष्ठ कारण मे ही हुँ। तुम मुझसे ही उत्पन्न हुए हो। मै इस समस्त ब्रह्माण्ड मे सकल और निष्कल भाव से प्रकट होता हुँ और सृष्टि का निर्माण करता हूं। इस समय तुम दोनो मेरी आज्ञा से यँहा प्रकट हुए हो।
ब्रह्मा और विष्णु ने पूछा-प्रभो ! सृष्टि आदि पाँच कृत्यों के लक्षण क्या हैं, यह हम दोनों को बताइये।
ॐ
मेरे उत्तरवर्ती मुख से अकार का, पश्चिम मुख से उकार का, दक्षिण मुख से मकार का, पूर्ववर्ती मुख से बिन्दुका तथा मध्यवर्ती मुख से नाद का प्राकट्य हुआ। इस प्रकार पाँच अवयवों से युक्त ओंकार का विस्तार है। इन सभी अवयवों से एकीभूत होकर वह प्रणव 'ॐ' नामक एक अक्षर हो गया। यह नाम रूपात्मक सारा जगत् तथा वेद उत्पन्न स्त्री-पुरुषवर्ग रूप दोनों कुल इस प्रणव- मन्त्र से व्याप्त हैं। यह मन्त्र शिव और शक्ति दोनों का बोधक है। इसीसे पञ्चाक्षर- मन्त्रकी उत्पत्ति हुई है, जो मेरे सकल रूप का बोधक है। वह अकारादि क्रम से और मकार आदि क्रम से क्रमशः प्रकाश में आया है ('ॐ नमः शिवाय' यह पञ्चाक्षर मन्त्र है) । इस पञ्चाक्षर मन्त्र से मातृ का वर्ण प्रकट हुए हैं, जो पाँच भेट वाले हैं। उसी से शिरोमन्त्रसहित त्रिपदा गायत्री का प्राकट्य हुआ है। उस गायत्री से सम्पूर्ण वेद प्रकट हुए हैं और उन वेदों से करोड़ों मन्त्र निकले हैं। उन-उन मन्त्रों से भिन्न-भिन्न कार्यों की सिद्धि होती है; परंतु इस प्रणव एवं पञ्चाक्षरसे सम्पूर्ण मनोरथोंकी सिद्धि होती है। इस मन्त्र समुदाय से भोग और मोक्ष दोनों सिद्ध होते हैं। मेरे सकल स्वरूपसे सम्बन्ध रखनेवाले सभी मन्त्रराज साक्षात् भोग प्रदान करनेवाले शुभ कारक (मोक्षप्रद) है।
नन्दिकेश्वर कहते हैं- तदनन्तर जगदम्बा पार्वती के साथ बैठे हुए गुरुवर महादेव जी ने उत्तराभिमुख बैठे हुए ब्रह्मा और विष्णु को पर्दा करने वाले वस्त्रले आच्छादित करके उनके मस्तक पर अपना कर कमल रखकर धीरे-धीरे उच्चारण करके उन्हें उत्तम मन्त्र का उपदेश किया। मन्त्र-तन्त्र में बतायी हुई विधि के पालनपूर्वक तीन बार मन्त्र का उधारण करके भगवान् शिव ने उन दोनों शिष्यों को मन्त्र की दीक्षा दी। फिर उन शिष्यों ने गुरु दक्षिणा के रूप में अपने-आप को ही समर्पित कर दिया और दोनों हाथ जोड़कर उनके समीप खड़े हो उन देवेश्वर जगद्गुरु का स्तवन किया।
ब्रह्मा और विष्णु बोले प्रभो ! आप निष्कलरूप हैं। आपको नमस्कार है। आप निष्कल तेज से प्रकाशित होते हैं। आपको नमस्कार है। आप सबके स्वामी हैं। आपको नमस्कार है। आप सर्वात्माको नमस्कार है अथवा सकल-स्वरूप आप महेश्वर को नमस्कार है। आप प्रणव के वाच्यार्थ हैं। आपको नमस्कार है। आप प्रणव लिङ्गवाले हैं। आपको नमस्कार है। सृष्टि, पालन, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह करने वाले आपको नमस्कार है। आपके पाँच मुख हैं। आप परमेश्वर को नमस्कार है। पचब्रह्म-स्वरूप पाँच कृत्य वाले आप को नमस्कार है। आप सबके आत्मा है, ब्रह्म हैं। आपके गुण और शक्तियाँ अनन्त हैं, आपको नमस्कार है। आपके सकल और निष्कल दो रूप हैं। आप सद्गुरु एवं शम्भु हैं, आपको नमस्कार है।
इन पद्यों द्वारा अपने गुरु महेश्वर की स्तुति करके ब्रह्मा और विष्णु ने उनके चरणों में प्रणाम किया।
महेश्वर बोले- 'आर्द्रा नक्षत्र से युक्त चतुर्दशी को प्रणव का जप किया जाय तो वह अक्षय फल देने वाला होता है। सूर्य की संक्रान्ति से युक्त महा-आर्द्रा नक्षत्र में एक बार किया हुआ प्रणव जप कोटि गुने जप का फल देता है 'मृगशिरा नक्षत्र का अन्तिम भाग तथा पुनर्वसु का आदिमभाग पूजा, खेम और तर्पण आदि के लिये सदा आद्रां के समान ही होता है- यह जानना चाहिये। मेरा या मेरे लिङ्ग का दर्शन प्रभातकाल में ही प्रातः और संगव ( मध्याह्नके पूर्व ) काल में करना चाहिये। मेरे दर्शन-पूजन के लिये चतुर्दशी तिथि निशीथव्यापिनी अथवा प्रदोषव्यापिनी लेनी चाहिये; क्योंकि परवर्तिनी तिथि से संयुक्त चतुर्दशी की ही प्रशंसा की जाती है। पूजा करने वालों के लिये मेरी मूर्ति तथा लिङ्ग दोनों समान हैं, फिर भी पूर्ति को अपेक्षा लिङ्ग का स्थान ऊँचा है। इसलिये मुमुक्षु पुरुषोंको चाहिये कि वे वेर (मूर्ति) से भी श्रेष्ठ समझकर लिङ्ग का ही पूजन करें। लिङ्ग का ॐकार- मन से और वेर का पञ्चाक्षर मन्त्र से पूजन करना चाहिये। शिव लिङ्ग की स्वयं ही स्थापना करके अथवा दूसरों से भी स्थापना करवा कर उत्तम द्रव्यमय उपचारों से पूजा करनी चाहिये इससे मेरा पद सुलभ हो जाता है।
इस प्रकार उन दोनों शिष्यों को उपदेश देकर भगवान शिव वहीं अन्तर्धान हो गये।
War between Lord Brahma the creator and Lord Vishnu the maintainer of the universe
After some time Lord Brahma heard a voice which was the sweet voice of Lord Vishnu.
Lord Vishnu said no son! You are not the God and Supreme Father of this universe, your existence is from me. Look carefully the lotus flower from which you appeared is attached to my navel which proves that you were born from the lotus that originated from my navel because I am your cause and you are like my son.
Lord Brahma jokingly said in words of arrogance, no, I do not have any father, I have seen this whole universe, it has appeared from me only. I am the cause and I am the Lord of this entire universe.
In this way, Lord Brahma did not agree to the persuasion of Lord Vishnu. Began to be stubborn like a child. Then Lord Vishnu ji found a way to explain like a father.
When Lord Brahma Ji asked to prove it, Lord Vishnu appeared from Lord Brahma's body after traveling for many years through the Nabhi Kamal Dand, coming out of Lord Brahma's body. Lord Vishnu also asked to do the same action. Then starting the journey from the lotus on which Lord Brahma was sitting, it took many lakhs of years for the lotus to reach the lotus stem, but he kept traveling in the lotus stem, but when his end was not found, Lord Vishnu was ashamed and declared his father. While doing this, he pleaded for help. Then Lord Vishnu showing mercy to Brahma ji took him out of that lotus stick and made him sit on the lotus pad and started apologizing to Lord Vishnu.
Lord Vishnu knew that Brahma ji has only become ashamed, his ego has not yet been destroyed. The debate went on like this for a long time. That's why the debate had increased so much that the war started in them, in the war, arms and weapons started moving from both sides, then there was a voice from another and suddenly a pillar of fire appeared, that weapon, that pillar of fire in itself. Took it and forbade both to fight.
The sound came from that pillar of fire, I am the best reason for the origin of both of you. You are born from me only. I appear in this entire universe in gross and pure form and create the universe. At this time both of you have appeared here by my order.
Brahma and Vishnu asked - Lord! Tell both of us what are the symptoms of the five acts of creation etc.
Lord Shiva said - Understanding my duties is very deep, however I am kindly telling you about their subject. Brahma and Achyut! 'Creation', 'Maintenance', 'Sanhar', 'Tirobhaav' and 'Grace' - these are the five world-related activities of mine, which are eternally proven. The beginning of the creation of the world is called Sarga or 'Srishti'. Being nurtured by me, the creation's condition is to live in a stable way. Its destruction is 'Sanhar'. The reversal of prana is called 'tirobhava'. Getting rid of all these is my 'grace'. Thus are my five acts. The four acts of creation etc. are the ones that expand the world. The fifth act is the purpose of grace salvation. He always remains unshakable in me. My devotees see these five acts in the five ghosts. Creation in the ground, situation in water, Annihilation is situated in the fire, Tirobhav is situated in the air and Anugraha is situated in the sky. Everyone is created from the earth. Everyone's growth and life is saved by water. Fire burns everyone. The wind takes everyone from one place to another and the sky blesses everyone. Learned men should know this subject in this form only. I have five faces only to carry out these five functions. There are four faces in the four directions and there is a fifth face in the middle. sons! Both of you have received two acts of creation and status from me, the Supreme Lord pleased by doing penance. These two are very dear to you. In the same way, 'Rudra' and 'Maheshwar' in my Vibhuti form have received two other best actions from me - destruction and disappearance. But no one else can get the act called grace. Rudra and Maheshwar have not forgotten their Karma. That's why I have provided my equality for them. Those forms, costumes, actions, vehicles, They are similar to me in posture and weapons etc. In the past, I have preached my Swaroopbhut mantra, which is famous as Omkar. It is a great auspicious mantra. First of all Omkar (Om) appeared from my mouth, which is the one who makes me understand my nature. Omkar is the reader and I am the reader. This mantra is my form only. By continuously remembering Omkar everyday, I am always remembered.
Om
By praising their Guru Maheshwar with these verses, Brahma and Vishnu prostrated at his feet.
Refrence Shiv Puran
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