महाशिवरात्री कथा - Mahashivratri Story
एक निषाद का प्राचीन इतिहास सुनाता हूँ, जो सब पापोंका नाश करने वाला है। पहले की बात है किसी जंगल में एक बहेलिया रहता था, जिसका नाम था-गुरुगुह। उसका कुटुम्ब बड़ा था तथा वह बलवान और क्रूर स्वभाव का होने के साथ ही क्रूरता पूर्ण कर्म में तत्पर रहता था । वह हर रोज़ जंगल में जाकर हिरणों को मारता और वहीं रहकर नाना प्रकार की चोरियाँ करता था। उसने बचपन से ही कभी कोई शुभ कर्म नहीं किया था। इस प्रकार जंगल में रहते हुए उस दुरात्मा बहेलिया का बहुत समय बीत गया। एक दिन बड़ी सुन्दर एवं शुभकारक शिवरात्रि आयी। किंतु वह दुरात्मा घने जंगल में निवास करनेवाला था,इसलिये उस व्रत को नहीं जानता था।
उसी दिन उस बहेलीयां के माता-पिता और पत्नी ने भूख से पीड़ित होकर उससे याचना की- 'वनेचर ! हमें खाने को दो।
उनके इस प्रकार कहने करने पर वह तुरंत धनुष लेकर चल दिया और हिरणों के शिकार के लिये सारे वन में घूमने लगा । दैवयोग से उसे उस दिन कुछ भी नहीं मिला और सूर्य अस्त हो गया। इससे उसको बड़ा दुःख हुआ और वह सोचने लगा- 'अब मैं क्या करूँ ! कहाँ जाऊँ ? आज तो कुछ नहीं मिला । घरमें जो बचे हैं, उनका तथा माता-पिता का क्या होगा ? मेरी जो पत्नी है, उसकी भी क्या दशा होगी ? अतः मुझे कुछ लेकर ही घर जाना चाहिये; अन्यथा नहीं।" यह सोचकर वह बहेलिया एक जलाशय के समीप पहुँचा और जहाँ पानी में उतरने का घाट था, वहाँ जाकर खड़ा हो गया। वह मनही मन यह विचार करता था कि 'यहाँ कोई-न-कोई जीव पानी पीने के लिये अवश्य आयेगा । उसी को मारकर साथ लेकर प्रसन्नतापूर्वक घर को जाऊँगा।" ऐसा निश्चय करके वह बहेलिया एक बेल के पेड़ पर चढ़ गया और वहीं जल साथ लेकर बैठ गया। उसके मन में केवल यही चिन्ता थी कि कब कोई जीव आयेगा और कब मैं उसे मारूंगा। इसी प्रतीक्षा में भूख- प्याससे पीड़ित हो वह बैठा रहा। उस रातके पहले पहर में एक प्यासी हिरणी वहाँ आयी, जो चोकस होकर जोर-जोर से चौकड़ी भर रही थी।
हिरणी को देखकर बहेलिया बड़ा हर्ष हुआ और उसने तुरंत ही उसको मारने के लिये अपने धनुष पर एक बाण का संधान किया। ऐसा करते हुए उसके हाथ के धक्केसे थोड़ा-सा जल और बिल्वपत्र नीचे गिर पड़े। उस पेड़ के नीचे शिवलिङ्ग पूजा के माहात्म्य से उस व्यापका बहुत-सा पाप उसी वक़्त नष्ट हो गया। वहाँ होने वाली खड़खड़ाहट की आवाज को सुनकर हिरणी ने भय से ऊपर की ओर देखा।
बहेलिया को देखते ही वह बैचेन हो गयी और बोली
हिरणी ने कहा-बहेलिया ! तुम क्या करना चाहते हो मेरे सामने सच-सच बताओ। हिरणी की वह बात सुनकर बहेलिया ने कहा- आज मेरे घर परिवार के लोग भूखे हैं।
तुम को मार कर उनकी भूख मिटाऊँगा, उन्हें तृप्त करूँगा ।
बहेलिया के वह बोल वचन सुनकर तथा जिसे रोकना कठिन था, उस दुष्ट बहेलिया बाण ताने देखकर हिरणी सोचने लगी कि 'अब मैं क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? अच्छा कोई उपाय रचती हैं। ऐसा विचार कर उसने वहाँ इस प्रकार कहा।
हिरणी बोली- बहेलिया! मेरे मांस से तुम को सुख होगा, इस अनर्थकारी शरीर के लिये इससे अधिक महान् पुण्य का कार्य और क्या हो सकता है ? उपकार करने वाले प्राणी को इस लोक में जो पुण्य प्राप्त होता है, उसका सौ सालों में भी वर्णन नहीं किया जा सकता । परंतु इस समय मेरे सब बच्चे मेरे आश्रम में ही है। मैं उन्हें अपनी बहिन को अथवा स्वामी को सौंपकर लौट आऊंगी।
वनेचर! तुम मेरी इस बात को झुठ न समझो मैं फिर तुम्हारे पास लौट आऊँगी, इसमें संशय नहीं है। सत्य से ही धरती टिकी हुई है, सत्य से ही समुद्र अपनी मर्यादा में स्थित है और सत्य से ही झरनों में से जल की धाराएँ गिरती रहती हैं। सत्य में ही सब कुछ स्थित है।
हिरणी के ऐसा कहने पर भी जब बहेलिया ने उसकी बात नहीं मानी, तब उसने अत्यन्त विस्मित एवं भयभीत हो पुनः इस प्रकार कहना आरम्भ किया।
हिरणी बोली- बहेलिया ! सुनो, मैं तुम्हारे सामने ऐसी शपथ खाती है, जिससे घर जाने पर में अवश्य तुम्हारे पास लौट आऊँगी। ब्राह्मण यदि वेद बेचे और तीनों काल संध्या न करे तो उसे जो पाप लगता है, पति की आज्ञा का उल्लङ्घन करके अपने मन मर्ज़ी कार्य करने वाली स्त्रियों को जिस पाप की प्राप्ति होती है, किये हुए उपकार को न मानने वाले, भगवान शंकर से विमुख रहने वाले, दूसरों से द्रोह करने वाले, धर्म को लाँघने वाले तथा विश्वास घात और छल करने वाले लोगों को जो पाप लगता है, उसी पाप से मैं भी लिप्त हो जाऊँ, यदि लौटकर यहाँ न आऊँ ।
इस तरह अनेक शपथ खाकर जब हिरणी चुपचाप खड़ी हो गयी, तब उस बहेलिया ने उस पर विश्वास करके कहा- 'अच्छा, अब तुम अपने घर को जाओ ।' तब वह मृगी बड़े खुशी के साथ पानी पीकर अपने आश्रम-मण्डल में गयी। इतने में ही रात का यह पहला प्रहर बहेलिया के जागते ही जागते बीत गया। तब उस हिरणी की बहिन दूसरी हिरणी, जिसका पहली ने स्मरण किया था, उसी की राह देखती हुई जल पीने के लिये वहाँ आ गयी। उसे देखकर बहेलिया ने स्वयं बाण को तरकस से खींचा। ऐसा करते समय पुनः पहले की भाँति भगवान शिव के ऊपर जल और बिल्वपत्र गिरे। उसके द्वारा महात्मा शम्भु की दूसरे प्रहर की पूजा सम्पन्न हो गयी। यद्यपि वह खुशी ही हुई थी, तो भी बहेलिया के लिये सुखदायिनी हो गयी। हिरणी ने उसे बाण खींचते देख पूछा- 'वनेचर! यह क्या करते हो ? बहेलिया पूर्ववत् उत्तर दिया- 'मैं अपने भूखे घर परिवार की भुख मिटाने के लिये तुझे मारूंगा।' यह सुनकर वह मृगी बोली ।
हिरणी ने कहा - बहेलिया ! मेरी बात सुनो। मैं धन्य हूँ। मेरा देह धारण सफल हो गया; क्योंकि इस अनित्य शरीर के द्वारा उपकार होगा। परंतु मेरे छोटे-छोटे बच्चें घर में है । अतः मैं एक बार जाकर उन्हें अपने स्वामी को सौप दूँ, फिर तुम्हारे पास लौट आऊँगी।
बहेलिया बोला- तुम्हारी इस बात पर मुझे विश्वास नहीं है। मैं तुझे मारूंगा, इसमें कोई शक नहीं है।
यह सुनकर वह हिरणी भगवान विष्णु की शपथ खाती हुई बोली- 'बहेलिया ! जो कुछ मैं कहती हूँ, उसे सुनो। यदि मैं लौटकर न आऊँ तो अपना सारा पुण्य हार जाऊँ; क्योंकि जो वचन देकर उससे पलट जाता है, वह अपने पुण्य को हार जाता है। जो पुरुष अपनी विवाहिता स्त्री को दूसरी के पास जाता है, वैदिक : उल्लङ्घन करके कपोल कल्पित धर्मपर चलता है, भगवान् विष्णु का भक्त होकर शिव की निन्दा करता है, - पिता की माता निधन तिथि को श्राद्ध आदि न करके उसे सूना बिता देता है तथा मन में संताप का अनुभव करके अपने दिये हुए वचन को पूरा करता है, ऐसे लोगों को जो पाप लगता है, वही मुझे भी लगे, यदि मैं लौटकर न आऊँ ।"
उसके ऐसा कहने पर बहेलिया ने उस हिरणी से कहा- 'जाओ।' हिरणी जल पीकर हर्षपूर्वक अपने आश्रम को गयी। इतने में ही रात का दूसरा प्रहर भी बहेलिया के जागते-जागते बीत गया। इसी समय तीसरा प्रहर आरम्भ हो जाने पर हिरणी के लौटने में बहुत देर हो गई यह जानकर चकित हो बहेलिया उसकी खोज करने लगा। इतने में ही उसने जल के मार्ग में एक हिरण को देखा। वह बड़ा हृष्ट-पुष्ट था। उसे देखकर वनेचर को बड़ा हर्ष हुआ और वह धनुष पर बाण रखकर उसे मार डालने को तैयार हुआ। ऐसा करते समय उसके प्रारब्ध वश कुछ जल और बिल्वपत्र शिवलिङ्गपर गिरे, उससे उसके सौभाग्य से भगवान शिव की तीसरे प्रहर की पूजा सम्पन्न हो गयी। इस तरह भगवान्ने उस पर अपनी दया दिखायी। पत्तों के गिरने आदि का शब्द सुनकर उस हिरण ने बहेलिया की ओर देखा और पूछा- "क्या करते हो ?"
बहेलिया ने उत्तर दिया- 'मैं अपने घर परिवार को भोजन देने के लिये तुम्हारा वध करूँगा । बहेलिया की यह बात सुनकर हिरण के मन में बड़ा हर्ष हुआ और तुरंत ही
बहेलिया इस प्रकार बोला ।
हिरण ने कहा- मैं धन्य हूँ। मेरा हृष्ट-पुष्ट होना सफल हो गया; क्योंकि मेरे शरीर से आप लोगों की तृप्ति होगी। जिसका शरीर परोपकार के काम में नहीं आता, उसका सब कुछ व्यर्थ चला गया। जो सामर्थ्य रहते हुए भी किसी का उपकार नहीं करता है, उसकी वह सामर्थ्य व्यर्थ चली जाती है तथा वह परलोक में नरकगामी होता हैं । परंतु एक बार मुझे जाने दो। मैं अपने बालकों को उनकी माता के हाथ में सौंपकर और उन सब को धीरज बंधाकर यहाँ लौट आऊँगा ।
उसके ऐसा कहने पर बहेलिया ने मनही मन बड़ा विस्मित हुआ । उसका हृदय कुछ शुद्ध हो गया था और उसके सारे पाप नष्ट हो चुके थे। उसने इस प्रकार कहा।
बहेलिया बोला - जो जो यहाँ आये, ये सब तुम्हारी ही तरह बातें बनाकर चले गये; परंतु वे वचक अभी तक यहाँ नहीं लौटे हैं। हिरण ! तुम भी इस समय संकट में हो, इसलिये झूठ बोलकर चले जाओगे। फिर आज मेरा जीवन निर्वाह कैसे होगा ?
हिरण बोला – बहेलिया ! मैं जो कुछ कहता हूँ, उसे सुनो। मुझ में असत्य नहीं है। सारा चराचर ब्रह्माण्ड सत्य से ही टिका हुआ है। जिसकी वाणी झूठी होती है, उसका पुण्य उसी क्षण नष्ट हो जाता है; तथापि बहेलिया! तुम मेरी सच्ची प्रतिज्ञा संध्याकाल में मैथुन तथा शिवरात्रि मे भोजन करने से जो पाप लगता है, जो झुठी गवाही देने, धरोहर को हड़प लेने तथा संध्या न करने से द्विजको जो पाप होता है, वही पाप मुझे भी लगे, यदि मैं लौटकर न आऊँ। जिसके मुख से कभी शिव का नाम नहीं निकलता, जो सामर्थ्यं रहते हुए भी दूसरों का उपकार नहीं करता, पर्वके दिन श्रीफल तोड़ता, अभक्ष्य- भक्षण करता तथा शिव की पूजा किये बिना और भस्म लगाये बिना भोजन कर लेता है, इन सबका पातक मुझे लगे, यदि मैं लौटकर न आऊँ ।
उसकी बात सुनकर बहेलिया ने कहा- 'जाओ, शीघ्र लौटना ।' बहेलिया ऐसा कहनेपर हिरम पानी पीकर चला गया। वे सब अपने आश्रम पर मिले। तीनों ही प्रतिज्ञाबद्ध हो चुके थे। आपस में एक-दूसरे के वृत्तान्त को भली भाँति सुनकर सत्य के पाश से बंधे हुए उन सब ने यहीं निश्चय किया कि वहाँ अवश्य जाना चाहिये। इस निश्चय के बाद वहाँ बालकों को आश्वासन देकर वे सब-के-सब जाने के लिये उत्सुक हो गये। उस समय बड़ी मृगी ने वहाँ अपने स्वामी से कहा – 'स्वामिन् ! आपके बिना यहाँ बालक कैसे रहेंगे ? प्रभो ! मैंने हो वहाँ पहले जाकर प्रतिज्ञा की है, इसलिये केवल मुझ को जाना चाहिये। आप दोनों यहीं रहें।' उसकी यह बात सुनकर छोटी मृगी बोली- 'बहिन ! मैं तुम्हारी सेविका हूँ, इसलिये आज मैं ही बहेलिया के पास जाती हूँ । तुम यहीं रहो।' यह सुनकर हिरण बोला- 'मैं ही वहाँ जाता हूँ। तुम दोनों यहाँ रहो; क्योंकि शिशुओं की रक्षा माता से ही होती है।' स्वामी की यह बात सुनकर उन दोनों हिरणियों ने धर्म की दृष्टि से उसे स्वीकार नहीं किया। वे दोनों अपने पति से प्रेमपूर्वक बोली- 'प्रभो ! पतिके बिना इस जीवन को धिक्कार है।' तब उन सबने अपने बच्चों को सांत्वना देकर उन्हें पड़ोसियों के हाथ में साँप दिया और स्वयं शीघ्र ही उस स्थान को प्रस्थान किया, जहाँ वह बहेलिया-शिरोमणि उनकी प्रतीक्षा में बैठा था। उन्हें जाते देख उनके वे सब बच्चे भी पीछे-पीछे चले आये। उन्होंने यह निश्चय कर लिया था कि इन माता-पिता की जो गति होगी, वही हमारी भी हो। उन सबको एक साथ आया देख बहेलिया बड़ा खुश हुआ। उसने धनुष पर बाण रखा। उस समय पुनः जल और बिल्व पत्र शिव के ऊपर गिरे। इससे शिव की चौथे प्रहर की शुभ पूजा भी सम्पन्न हो गयी। उस समय बहेलिया का सारा पाप उसी समय भस्म हो गया। इतने में ही दोनों हिरणियों और हिरण बोल उठे - 'व्याधशिरोमणे ! शीघ्र कृपा करके हमारे शरीर को सार्थक करो।' उनकी यह बात सुनकर बहेलिया बड़ा विस्मय हुआ । शिवपूजा के प्रभाव से उसको दुर्लभ ज्ञान प्राप्त हो गया। उसने सोचा- 'ये मृग ज्ञानहीन पशु होने पर भी धन्य हैं, सर्वथा आदरणीय है; क्योंकि अपने शरीर से ही परोपकार में लगे हुए हैं। मैंने इस समय मनुष्य जन्म पाकर भी किस पुरुषार्थ का साधन किया ? दूसरेके शरीर को पीड़ा देकर अपने शरीर को पोसा है। प्रतिदिन अनेक प्रकार के पाप करके अपने घर परिवार का पालन किया है। हाय ! ऐसे पाप करके मेरी क्या गति होगी ? अथवा मैं किस गति को प्राप्त होऊंगा ? मैंने जन्म से लेकर अबतक जो पातक किया है, उसका इस समय मुझे स्मरण हो रहा है। मेरे जीवन को धिकार है, धिक्कार है। इस प्रकार ज्ञान सम्पन्न होकर बहेलिया ने अपने बाण को रोक लिया और कहा- 'श्रेष्ठ हिरणों ! तुम जाओ । तुम्हारा जीवन धन्य है ।'
बहेलिया के ऐसा कहने पर भगवान शंकर तत्काल प्रसन्न हो गये और उन्होंने बहेलिया को अपने सम्मानित एवं पूजित स्वरूप का दर्शन कराया तथा कृपापूर्वक उसके शरीर का स्पर्श करके उससे प्रेमसे कहा- 'बहेलिया ! मैं तुम्हारे व्रत से प्रसन्न हूँ। वर माँगो'
बहेलिया भी भगवान् शिव के उस रूप को देखकर तत्काल जीवन्मुक्त हो गया और 'मैंने सब कुछ पा लिया' यों कहता हुआ उनके चरणों के आगे गिर पड़ा। उसके इस 'भाव को देखकर भगवान शिव भी मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए और उसे 'गुह' नाम देकर कृपादृष्टिसे देखते हुए उन्होंने उसे दिव्य वर दिये ।
शिव बोले- बहेलिया ! सुनो, आज से तुम शृङ्गवेरपुर में उत्तम राजधानी का आश्रय ले दिव्य भोगों का उपभोग करो। तुम्हारे वंश की वृद्धि निर्विरूप से होती रहेगी। देवता भी तुम्हारी प्रशंसा करेंगे। बहेलिया ! मेरे भक्तों पर स्नेह रखने वाले भगवान श्रीराम एक दिन निश्चय ही तुम्हारे घर पधारेंगे और तुम्हारे साथ मित्रता करेंगे। तुम मेरी सेवा में मन लगाकर दुर्लभ मोक्ष पा जाओगे।
इसी समय वे सब हिरण भगवान शंकर का दर्शन और प्रणाम करके हिरण योनि से मुक्त हो गये तथा दिव्य-देहधारी हो विमानपर बैठकर शिव के दर्शनमात्र से शाप मुक्त हो दिव्यधाम को चले गये। तबसे अर्बुद पर्वत पर भगवान शिव व्याधेश्वरके नामसे प्रसिद्ध हुए, जो दर्शन और पूजन करनेपर तत्काल भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं। बहेलिया भी उस दिन से दिव्य भोगों का उपभोग करता हुआ अपनी राजधानी में रहने लगा। उसने भगवान् श्रीराम की कृपा पाकर शिवका सायुज्य प्राप्त कर लिया। अनजान में ही इस व्रतका अनुष्ठान करने से उसको सायुज्य मोक्ष मिल गया; फिर जो भक्ति भाव से सम्पन्न होकर इस व्रत को करते हैं, वे शिवका शुभ सायुज्य प्राप्त कर लें, इसके लिये तो कहना ही क्या है। सम्पूर्ण शास्त्रों तथा अनेक प्रकार के धर्मो के विषय में भलीभाँति विचार करके इस शिवरात्रि व्रत को सबसे उत्तम बताया गया है। इस लोक में जो नाना प्रकार के व्रत, विविध तीर्थ, भाँति-भाँति के विचित्र दान, अनेक प्रकार के यज्ञ, तरह-तरह के तप तथा बहुत से जप हैं, वे सब इस शिवरात्रि- व्रतकी समानता नहीं कर सकते। इसलिये अपना हित चाहने वाले मनुष्यों को इस शुभतर व्रत का अवश्य पालन करना चाहिये। यह शिवरात्रि व्रत दिव्य है। इस से सदा भोग और मोक्षकी प्राप्ति होती है। यह शुभ शिवरात्रि व्रत व्रतराज के नाम से विख्यात हैं।
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